BA Semester-5 Paper-1 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2801
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 संस्कृत - वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय दर्शन - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।

उत्तर -

द्रव्य-निरुपण

१.

तत्र गन्धवती पृथिवी। सा द्विविधा - नित्या अनित्या च। नित्या परमाणु - रूपा। अनित्याकार्यरूपा। सा पुनस्त्रिविधा शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीर मस्मदादीनाम्। इन्द्रियं गन्धग्राहकं घ्राणं नासाग्रवर्ति। विषयो मृत्पाषाणादिः।

अथवा
'तत्र गन्धवती पृथिवी' की व्याख्या कीजिए।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ तर्कसंग्रहकार श्री अन्नम्भट्ट कृत 'तर्कसंग्रह' के 'द्रव्य निरुपण' भाग से उद्धृत की गई है।

प्रसंग - इस पंक्ति में द्रव्य गुण वाली पृथ्वी का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - उन नौ द्रव्यों में जो द्रव्य गन्ध गण वाला होता है वह पृथ्वी है। वह पृथ्वी नित्य और अनित्य रूप में दो प्रकार की है। परमाणु रूप पृथ्वी नित्य और कार्यरूप पृथ्वी अनित्य है। शरीर इन्द्रिय और विषय के भेद अनित्य पृथ्वी फिर तीन प्रकार के होते हैं। हम लोगों के शरीरं पृथ्वी में हैं। पृथ्वी से बनी इन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय है जो पृथ्वी के विशेष गण 'गन्ध' को ग्रहण करती है। इसका स्थान नासिका का अग्रभाग है जहाँ वह रहती है।

विशेष - 'गन्ध' पृथिवी का विशेष गुण होने से 'गन्धाश्रयत्वम् पृथिवीत्वम्' या 'गन्धसमवायि कारणत्वम् पृथिवीत्वम्' यह पृथिवी का लक्षण है। 'शरीर' का लक्षण है- 'भोगापतनं शरीरम्' जो कर्मों के योग का स्थान या क्षेत्र है वह शरीर कहा जाता है। अथवा शरीर में भोगार्थ चेष्टा होने के कारण 'चेष्टाश्रयः शरीरम्' यह 'शरीर' का लक्षण है। जो भोग में परमसाधन अर्थात् 'करण' उत्कृष्ट कारण है उन्हें 'इन्द्रिय' कहते हैं। जो शरीर और इन्द्रिय के अलावा भोग में साधन बनता है वह 'विषय' है - शरीरेन्द्रियभिन्नत्वे सति भोगसाधनत्वं विषयत्वम् "

२.

शीतस्पर्शवत्य आपः। ता द्विविधाः - नित्या अनित्याश्च नित्याः परमाणुरूपाः अनित्याः कार्यरूपाः। ताः पुनर्ह्रिविधाः शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरं वरुणलोके। इन्द्रियं रसग्राहकं रसनं जिह्वाग्रवर्तिविषयः सरित् समुद्रादिः।

सन्दर्भ - पूर्ववत्

प्रसंग - इन पंक्तियों में जल का निरूपण किया है।

व्याख्या - जिसमें शीत का स्पर्श रहता है उसे जल कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है - नित्य और अनित्य। परमाणु रूप सूक्ष्म जल नित्य तथा कार्यरूप स्थूल जल अनित्य है। यह अनित्य जल पुनः तीन प्रकार का होता है शरीर रूप इन्द्रिय रूप तथा विषरूप। जल निर्मित शरीर वरुणलोक वालों का होता है। जलीय इन्द्रिय रसना है जो खट्ठे-मीठे नमकीन आदि सभी प्रकार के रस ग्रहण करती है। यह जिह्वा के नोक पर रहती है।

विशेष - तर्कसंग्रहकार ने जल के रूप प्रकार एवं लक्षण की विवेचना की है।

३.

उष्णस्पर्शवत् तेजः। तच्च द्विविधं नित्यमनित्यं च। नित्यं परमाणुरूपम् अनित्यं कार्यरूपम्। तच्च पुनस्त्रिविधं शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरमादित्यलोके प्रसिद्धम्। इन्द्रियं रूपग्राहकं चक्षुः कृष्णताराग्रवर्ति। विषयश्र्च्चतुर्विधः भौमदिव्यौदर्याकरजभेदात्। भौमं वह्न्यादिकम्। अबिन्धनं दिव्यं विद्युदादि। भुक्तान्नपरिणामहेतुरुदर्यम्। आकरजं सुवर्णादि।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इन पंक्तियों में कृतिकार ने तेज का वर्णन किया है।

व्याख्या - समवाय सम्बन्ध से उष्ण स्पर्श जिसमें हो वह तेज है (इस प्रकार समवायेन उष्णस्पर्शक्त्वं तेजस्त्वम्। यही तेज का लक्षण है)। यह दो प्रकार का होता है नित्य तथा अनित्य। परमाणु रूप सूक्ष्म तेज नित्य तथा कार्यरूप स्थूल तेज अनित्य होता है। यह अनित्य तेज पुनः पुनः तीन प्रकार का होता है - शरीररूप, इन्द्रियरूप तथा विषयरूप। तेजस या तेजोनिर्मित शरीर सूर्यलोक वालों का होता है यह प्रसिद्ध है। तेजस इन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय है जो सभी प्रकार के रूप एवं रूप वाले द्रव्यों के प्रत्यज्ञ ज्ञान का साधन है। यह इन्द्रिय आँख के मध्य में काले तिल की अग्रभाग में रहती है।

विषय रूप तेज चार प्रकार है- भू लोक में स्थित द्युत लोग में स्थित उदर में स्थित एवं खान में स्थित अग्नि आदि भौम तेज हैं। जल इन्धन वाले सूर्य, चन्द्र, विद्युत इत्यादि दिव्य तेज हैं। खाये गये अन्न को पचाने वाले तेज उदर्य तेज हैं। सुवर्ण इत्यादि खनिज धातुयें आकरज तेज हैं।

विशेष - तर्कसंग्रहकार ने तेज के लक्षण एवं रूप की विवेचन किया है।

४.

रूपरहितस्पर्शवान् वायुः। स द्विविधो नित्यः अनित्यश्व। नित्यः परमाणुरूपः अनित्यः कार्यरूपः। सा पुनस्त्रिविधः शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरं वायुलोके। इन्द्रियं स्पर्शग्राहकं त्वक् सर्वशरीवर्ति। विषयो वृक्षादि कम्पनहेतुः। शरीरान्तसञ्चारी वायुः शरीरान्तसञ्चारी वायुः प्राणः। स एकोऽप्युपाधिभेदात् प्राणापानादिसंज्ञां लभते।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस गद्यांश में वायु का वर्णन किया गया है।

व्याख्या - जिसमें रूप का अत्यन्ताभाव है और और समवाय सम्बन्ध से स्पर्श रहता है उसका नाम वायु है। वह दो प्रकार का है - नित्य तथा अनित्य। परमाणु रूप सूक्ष्म वायु नित्य तथा कार्यरूप स्थूल वायु अनित्य है। यह अनित्य वायु पुनः तीन प्रकार की है शरीरूप इन्द्रियरूप तथा विषयरूप। वायव्य या वायवीय शरीर तो वायु लोक वालों का होता है। स्पर्श का प्रत्यक्ष ज्ञान कराने वाला सर्वशरीर व्यापी 'त्वक्' इन्द्रिय है। वृक्षादि के कम्पन्न का हेतु भूत वायु ही विषय रूप वायु है। शरीर के भीतर सञ्चरण करने वाले वायु का नाम 'प्राण' है। यद्यपि यह एक है तथापि स्थान रूप उपाधि के भेद से प्राण अपान समान उदान एवं ब्यान इन पाँच नाम से जाना जाता है।

विशेष - हृदय स्थानवर्ती वायु 'प्राण गुदा स्थानवर्ती वायु अपान नाभि स्थानवर्ती वायु 'समान' कण्ठ स्थानवर्ती उदान तथा समस्त शरीरवर्ती, 'व्यान' वायु कहा जाता है। मन आदि के भी 'शरीरान्तः सञ्चारी' होने से प्राणादि होने का प्रसंग उठेगा अतः वायु इतना अधिक कथन करके उसकी प्राणादि से अलग कर दिया गया। मन वायु नहीं है इसी से वह प्राणादि के अन्तर्गत भी नहीं है।

५.

तर्व्यनो प्रमितिविषयीक्रियन्ते इति तर्थाः, द्रव्यादिसप्तपदार्थाः तेषं संग्रहः संक्षेपेण स्वरूपकथनं कियते इति। कस्मै प्रयोजनमित्यत आहसुखबोधायेति। सुखेन अनायासेन बोधः- पदार्थतत्वज्ञानं तस्या इत्यर्थः। ननु बहुषु तर्कग्रन्थेषु सत्सु किमर्थमपूर्वग्रंथः कियते इत्यतः आह बालानामिति। सन्दर्भ पूर्ववत्

प्रसंग - इन पंक्तियों में द्रव्य संचय का निरूपण किया गया है।

व्याख्या - धन संचय के विषय में जिसमें द्रव्य आदि सात पदार्थ है। उन सब के संचय करने के स्वरूप के विषय में यहाँ पर कहा गया है। किस प्रकार प्रयास करने पर उक्त सातों पदार्थों से सुख प्राप्त किया जा सकता है। बिना किसी कारण के अनायास सुख की प्राप्ति हो सकती है। पदार्थ के तत्व का ज्ञान हो सकता है। इन सबके विषय में कहा गया है। अनेक प्रकार के ग्रन्थों में नाना प्रकार से आदि ग्रन्थों में भी द्रव्य एवं पदार्थों के संचय के प्रयास करने सम्बन्धी उपाय बताये गये हैं।

विशेष - तर्थाः, शब्द के प्रयोग से द्रव्य संचय सूचक का आभास होता है। सप्त पदार्थाः अर्थात् सात पदार्थों वाले तत्व का बोध कराया गया है।

६.

शब्दगुणकमाकाशम् तच्चैकं विभु नित्यं च।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस पंक्ति में आकाश का निरूपण किया गया है।

व्याख्या - समवाय सम्बन्ध से शब्द गुण जिस द्रव्य में रहता है। वह आकाश कहलाता है। (इस प्रकार 'शब्दाश्रयत्वं शब्दसमवायि कारणत्वं वा आकाशत्वम्' यह आकाश द्रव्य का लक्षण हुआ)। यह आकाश एक नित्य अर्थात् सार्वकालिक तथा विभु अर्थात् सार्वदेशिक या सर्वव्यापी है।

विशेष - आकाश का कोई भेद नहीं होता। इसी से वह एक कहा गया घटाकांश मठाकाश आदि भेद तो घट मठ आदि के कारण होने से औपाधिक हैं वास्तविक नहीं। 'नित्य' का अर्थ है अविनाशी। जिस नाश होता है उसकी उत्पत्ति पूर्व में हुई रहती है। अतः न जन्म लेने वाला और न नष्ट होने वाला 'नित्य' हुआ। इसी से आकाश के कार्य (स्थूल) रूप का कथन नहीं किया गया।

७.

अतीतादि व्यवहार हेतुः कालः। स चैको विभुर्नित्यश्च।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - इस गद्यांश में काल का निरूपण किया गया है।

व्याख्या - अतीत अर्थात् भूत इत्यादि (भूत, भविष्य, वर्तमान) व्यवहार के ( असाधारण ) कारण को काल कहते हैं। वह एक सर्वव्यापी तथा नित्य है।

भूत भविष्य और वर्तमान - ये काल के व्यावहारिक या औपाधिक भेद हैं। परमार्थतः काल ही एक है। काल विभु या व्यापक है क्योंकि विभिन्न द्रव्यों में एक ही साथ काल-मूलक परत्व ( बड़ा ज्येष्ठ) अपरत्व (छोटा कनिष्ठ ) कार्यों (भावों) की उत्पत्ति होती है। विभु होने से काल परम महान और परम महान हीनो से ही नित्य है। क्योंकि अनित्य द्रव्य द्रव्यणुक के समान अणु अथवा घट के समान मध्यम परिमाण ही हो सकता है।

विशेष - काल अपने निजी स्वरूप में अतीत वर्तमान अथवा भविष्यत् नहीं होता किन्तु उसमें उत्पन्न होने वाली क्रियायें अतीत वर्तमान और भविष्यत् होती हैं। उनके द्वारा ही अनेक आश्रयभूत काल को अतीत वर्तमान तथा भविष्यत् कहा जाता है जैसे एक ही पुरुष पकाने की क्रिया करने के कारण पाचक (रसोइया) और पढ़ने-पढ़ाने की क्रिया करने के कारण पाठक कहा जाता है।

9.

प्राच्यादिव्यवहारहेतुर्दिक्। सा चैका नित्या विभ्वी च।

सन्दर्भ - पूर्ववत्

प्रसंग - इस पंक्ति में दिशाओं का निरूपण किया गया है।

व्याख्या - प्राची ( पूर्व ) प्रतीची (पश्चिम) इत्यादि व्यवहार के ( असाधारण ). कारण को 'दिक्' दिशा- कहते हैं। वह परमार्थतः एक अर्थात् विभाग रहित या अविभाज्य नित्य और विभु है।

प्राची प्रतीची अवाची (दक्षिण दिशा), उदीची (उत्तर दिशा ) - ये एक ही सर्वव्यापी तथा विभागरहित दिक् के एक काल की ही भाँति व्यावहारिक या औपाधिक भेद हैं। पूर्व पश्चिम उत्तर-दक्षिण इन चार प्रमुख भेदों के अतिरिक्त चार विदिक् या अप्रमुख दिशायें आग्नेय नैऋत्य वायव्य तथा ईशान हैं। ऊपर तथा नीचे मिलाने से इनकी कुल संख्या दस हो जाती है।

विशेष - दिशाओं के प्रतीतियों का कर्ता जब उदीयमान सूर्य को देखता है तब वह एक ही दिक् को सूर्य और अपने बीच में आने वाले स्थानों के सम्पर्क में पूर्व कहलाता है अपने पीछे पड़ने वाले स्थानों से सम्पर्क में पश्चिम कहलाता है और दाहिने हाथ पडने वाले स्थानों के सम्पर्क में दक्षिण कहलाता है। बायें हाथ पकड़ने वाले स्थानों के सम्पर्क में उत्तर कहलाता है।

६.

ज्ञानाधिकरणमात्मा। स: द्विविधः, जीवात्मा परमात्मा चेति। तत्रेश्वरः सर्वज्ञः परमात्मा एक एव सुखदुः खादिरहितः। जीवात्मा प्रतिशरीरं भिन्नो विभर्नित्यश्च।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्ति आत्मा तथा उसके भेद परमात्मा तथा जीवात्मा के लक्षण प्रस्तुत किये गये हैं।

व्याख्या - आत्मा ज्ञान के आश्रय को कहते हैं। जीवात्मा तथा परमात्मा के भेद से वह दो प्रकार का होता है। उनमें परमात्मा जो सर्वशक्तिमान् (ईश्वर) एवं सर्वज्ञानवान् (सर्वज्ञ) है एक ही है। वह धर्माधर्म या पुण्य-पाप के अभाव के कारण उनके फल सुख और दुःख के भोग से रहित है। जीवात्मा हर एक शरीर में भिन्न-भिन्न हैं किन्तु परमात्मा की तरह ही विभु एवं नित्य है।

विशेष - आत्मा का लक्षण है ज्ञान का आश्रय होना। आत्मा के अतिरिक्त शेष आठ द्रव्यों में से किसी में भी ज्ञान का आश्रय होने की योग्यता नहीं है। यद्यपि न्याय आत्मा के विषय में प्रत्यक्ष अनुमान एवं शब्द या आगम इन तीनों प्रमाणों को ही मानता है तथापि तीनों में अनुमान को ही प्राधान्य देता है।

१०.

सुखदुःखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मन:।
तच्च प्रत्यात्मनियतत्वादनन्तं परमाणुरूपं नित्यं च।

सन्दर्भ - पूर्ववत्॥

प्रसंग - इस पंक्ति में मन का निरूपण किया गया है।

व्याख्या - सुख-दुःख इत्यादि आन्तरिक ( आत्मस्थ ) गुणों की उपलब्धि के साधन-भूत अन्तः करण को 'मन' कहते हैं। यह प्रत्येक आत्मा में नियत होने से अनन्त परमाणु-रूप अर्थात् सूक्ष्म तथा नित्य है।

प्रत्येक जीवात्मा में होने वाले सुख-दुःख के अनुभव में करण रूप से मन का रहना नियत अर्थात् आवश्यक है। जीवन अनन्त हैं अतः उनमें से प्रत्येक के साथ नियत मन भी अनन्त हैं। ये परमाणुओं की तरह परम सूक्ष्म निरवयव होते हैं इसलिए परमाणु रूप पृथिवी इत्यादि की भाँति नित्य होते हैं।

विशेष - सुख दुःखादि की प्राप्ति में मन के अलावाँ आत्म-मनः सन्निकर्ष भी साधन है अतः उसमें अतिव्याप्ति को रोकने के लिए मूल में 'इन्द्रिय' पद दिया गया है। आत्ममनः संयोग के इन्द्रिय न होने से अतिव्याप्ति दोष नहीं होता। इस तरह 'सुखाद्युपलब्धिसाधनत्वे सति इन्द्रियत्वं मनस्त्वम्' ऐसा मन का लक्षण सम्पन्न हुआ।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वेद के ब्राह्मणों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  2. प्रश्न- ऋग्वेद के वर्ण्य विषय का विवेचन कीजिए।
  3. प्रश्न- किसी एक उपनिषद का सारांश लिखिए।
  4. प्रश्न- ब्राह्मण साहित्य का परिचय देते हुए, ब्राह्मणों के प्रतिपाद्य विषय का विवेचन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वेदाङ्ग' पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण पर एक निबन्ध लिखिए।
  7. प्रश्न- उपनिषद् से क्या अभिप्राय है? प्रमुख उपनिषदों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
  8. प्रश्न- संहिता पर प्रकाश डालिए।
  9. प्रश्न- वेद से क्या अभिप्राय है? विवेचन कीजिए।
  10. प्रश्न- उपनिषदों के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- ऋक् के अर्थ को बताते हुए ऋक्वेद का विभाजन कीजिए।
  12. प्रश्न- ऋग्वेद का महत्व समझाइए।
  13. प्रश्न- शतपथ ब्राह्मण के आधार पर 'वाङ्मनस् आख्यान् का महत्व प्रतिपादित कीजिए।
  14. प्रश्न- उपनिषद् का अर्थ बताते हुए उसका दार्शनिक विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- आरण्यक ग्रन्थों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- ब्राह्मण-ग्रन्थ का अति संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- आरण्यक का सामान्य परिचय दीजिए।
  18. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए।
  19. प्रश्न- देवता पर विस्तृत प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तों में से किसी एक सूक्त के देवता, ऋषि एवं स्वरूप बताइए- (क) विश्वेदेवा सूक्त, (ग) इन्द्र सूक्त, (ख) विष्णु सूक्त, (घ) हिरण्यगर्भ सूक्त।
  21. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में स्वीकृत परमसत्ता के महत्व को स्थापित कीजिए
  22. प्रश्न- पुरुष सूक्त और हिरण्यगर्भ सूक्त के दार्शनिक तत्व की तुलना कीजिए।
  23. प्रश्न- वैदिक पदों का वर्णन कीजिए।
  24. प्रश्न- 'वाक् सूक्त शिवसंकल्प सूक्त' पृथ्वीसूक्त एवं हिरण्य गर्भ सूक्त की 'तात्त्विक' विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त की विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रयुक्त "कस्मै देवाय हविषा विधेम से क्या तात्पर्य है?
  27. प्रश्न- वाक् सूक्त का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  28. प्रश्न- वाक् सूक्त अथवा पृथ्वी सूक्त का प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट कीजिए।
  29. प्रश्न- वाक् सूक्त में वर्णित् वाक् के कार्यों का उल्लेख कीजिए।
  30. प्रश्न- वाक् सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  31. प्रश्न- पुरुष सूक्त में किसका वर्णन है?
  32. प्रश्न- वाक्सूक्त के आधार पर वाक् देवी का स्वरूप निर्धारित करते हुए उसकी महत्ता का प्रतिपादन कीजिए।
  33. प्रश्न- पुरुष सूक्त का वर्ण्य विषय लिखिए।
  34. प्रश्न- पुरुष सूक्त का ऋषि और देवता का नाम लिखिए।
  35. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। शिवसंकल्प सूक्त
  36. प्रश्न- 'शिवसंकल्प सूक्त' किस वेद से संकलित हैं।
  37. प्रश्न- मन की शक्ति का निरूपण 'शिवसंकल्प सूक्त' के आलोक में कीजिए।
  38. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त में पठित मन्त्रों की संख्या बताकर देवता का भी नाम बताइए।
  39. प्रश्न- निम्नलिखित मन्त्र में देवता तथा छन्द लिखिए।
  40. प्रश्न- यजुर्वेद में कितने अध्याय हैं?
  41. प्रश्न- शिवसंकल्प सूक्त के देवता तथा ऋषि लिखिए।
  42. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। पृथ्वी सूक्त, विष्णु सूक्त एवं सामंनस्य सूक्त
  43. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त में वर्णित पृथ्वी की उपकारिणी एवं दानशीला प्रवृत्ति का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- पृथ्वी की उत्पत्ति एवं उसके प्राकृतिक रूप का वर्णन पृथ्वी सूक्त के आधार पर कीजिए।
  45. प्रश्न- पृथ्वी सूक्त किस वेद से सम्बन्ध रखता है?
  46. प्रश्न- विष्णु के स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- विष्णु सूक्त का सार लिखिये।
  48. प्रश्न- सामनस्यम् पर टिप्पणी लिखिए।
  49. प्रश्न- सामनस्य सूक्त पर प्रकाश डालिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। ईशावास्योपनिषद्
  51. प्रश्न- ईश उपनिषद् का सिद्धान्त बताते हुए इसका मूल्यांकन कीजिए।
  52. प्रश्न- 'ईशावास्योपनिषद्' के अनुसार सम्भूति और विनाश का अन्तर स्पष्ट कीजिए तथा विद्या अविद्या का परिचय दीजिए।
  53. प्रश्न- वैदिक वाङ्मय में उपनिषदों का महत्व वर्णित कीजिए।
  54. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के प्रथम मन्त्र का भावार्थ स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् के अनुसार सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करने का मार्ग क्या है।
  56. प्रश्न- असुरों के प्रसिद्ध लोकों के विषय में प्रकाश डालिए।
  57. प्रश्न- परमेश्वर के विषय में ईशावास्योपनिषद् का क्या मत है?
  58. प्रश्न- किस प्रकार का व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता? .
  59. प्रश्न- ईश्वर के ज्ञाता व्यक्ति की स्थिति बतलाइए।
  60. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या में क्या अन्तर है?
  61. प्रश्न- विद्या एवं अविद्या (ज्ञान एवं कर्म) को समझने का परिणाम क्या है?
  62. प्रश्न- सम्भूति एवं असम्भूति क्या है? इसका परिणाम बताइए।
  63. प्रश्न- साधक परमेश्वर से उसकी प्राप्ति के लिए क्या प्रार्थना करता है?
  64. प्रश्न- ईशावास्योपनिषद् का वर्ण्य विषय क्या है?
  65. प्रश्न- भारतीय दर्शन का अर्थ बताइये व भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषतायें बताइये।
  66. प्रश्न- भारतीय दर्शन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि क्या है तथा भारत के कुछ प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय कौन-कौन से हैं? भारतीय दर्शन का अर्थ एवं सामान्य विशेषतायें बताइये।
  67. प्रश्न- भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  68. प्रश्न- भारतीय दर्शन एवं उसके भेद का परिचय दीजिए।
  69. प्रश्न- चार्वाक दर्शन किसे कहते हैं? चार्वाक दर्शन में प्रमाण पर विचार दीजिए।
  70. प्रश्न- जैन दर्शन का नया विचार प्रस्तुत कीजिए तथा जैन स्याद्वाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन से क्या अभिप्राय है? बौद्ध धर्म के साहित्य तथा प्रधान शाखाओं के विषय में बताइये तथा बुद्ध के उपदेशों में चार आर्य सत्य क्या हैं?
  72. प्रश्न- चार्वाक दर्शन का आलोचनात्मक विवरण दीजिए।
  73. प्रश्न- जैन दर्शन का सामान्य स्वरूप बताइए।
  74. प्रश्न- क्या बौद्धदर्शन निराशावादी है?
  75. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  76. प्रश्न- विविध दर्शनों के अनुसार सृष्टि के विषय पर प्रकाश डालिए।
  77. प्रश्न- तर्क-प्रधान न्याय दर्शन का विवेचन कीजिए।
  78. प्रश्न- योग दर्शन से क्या अभिप्राय है? पतंजलि ने योग को कितने प्रकार बताये हैं?
  79. प्रश्न- योग दर्शन की व्याख्या कीजिए।
  80. प्रश्न- मीमांसा का क्या अर्थ है? जैमिनी सूत्र क्या है तथा ज्ञान का स्वरूप और उसको प्राप्त करने के साधन बताइए।
  81. प्रश्न- सांख्य दर्शन में ईश्वर पर प्रकाश डालिए।
  82. प्रश्न- षड्दर्शन के नामोल्लेखपूर्वक किसी एक दर्शन का लघु परिचय दीजिए।
  83. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  84. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। श्रीमद्भगवतगीता : द्वितीय अध्याय
  85. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के अनुसार आत्मा का स्वरूप निर्धारित कीजिए।
  86. प्रश्न- 'श्रीमद्भगवद्गीता' द्वितीय अध्याय के आधार पर कर्म का क्या सिद्धान्त बताया गया है?
  87. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता द्वितीय अध्याय के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण कीजिए?
  88. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का सारांश लिखिए।
  89. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता को कितने अध्यायों में बाँटा गया है? इसके नाम लिखिए।
  90. प्रश्न- महर्षि वेदव्यास का परिचय दीजिए।
  91. प्रश्न- श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिपाद्य विषय लिखिए।
  92. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( आरम्भ से प्रत्यक्ष खण्ड)
  93. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं पदार्थोद्देश निरूपण कीजिए।
  94. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं द्रव्य निरूपण कीजिए।
  95. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं गुण निरूपण कीजिए।
  96. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या एवं प्रत्यक्ष प्रमाण निरूपण कीजिए।
  97. प्रश्न- अन्नम्भट्ट कृत तर्कसंग्रह का सामान्य परिचय दीजिए।
  98. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन एवं उसकी परम्परा का विवेचन कीजिए।
  99. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का विवेचन कीजिए।
  100. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण को समझाइये।
  101. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन के आधार पर 'गुणों' का स्वरूप प्रस्तुत कीजिए।
  102. प्रश्न- न्याय तथा वैशेषिक की सम्मिलित परम्परा का वर्णन कीजिए।
  103. प्रश्न- न्याय-वैशेषिक के प्रकरण ग्रन्थ का विवेचन कीजिए॥
  104. प्रश्न- न्याय दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण की विवेचना कीजिए।
  105. प्रश्न- निम्नलिखित मंत्रों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिए। तर्कसंग्रह ( अनुमान से समाप्ति पर्यन्त )
  106. प्रश्न- 'तर्कसंग्रह ' अन्नंभट्ट के अनुसार अनुमान प्रमाण की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- तर्कसंग्रह के अनुसार उपमान प्रमाण क्या है?
  108. प्रश्न- शब्द प्रमाण को आचार्य अन्नम्भट्ट ने किस प्रकार परिभाषित किया है? विस्तृत रूप से समझाइये।

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